गाय-भैंस का ब्याना और बिगौत का खाना..

[देवेन्द्र मेवाड़ी जी द्वारा उनके गांवों के किस्से हमें सुनते रहे हैं। उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। उनके श्यूँ बाघ के किस्से श्यूँ बाघ, देबुआ और प्यारा सेतुआ…., ओ पार के टिकराम और ए पार की पारभती, चिलम की चिसकाटी व बकरी चोर, श्यूं बाघ व नेपाली ‘जंग बहादुर’ , अब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ भी आप पढ़ चुके हैं। आज वह लेकर आये हैं गांव के गोरु बाछों की कहानी। इसका पहला भाग , दूसरा भागतीसरा भाग आप पढ़ चुके हैं, प्रस्तुत है चौथा व अंतिम भाग : प्रबंधक]

MINOLTA DIGITAL CAMERAब्याने वाली गाय-भैंस की खास देखभाल की जाती थी। उसे ऊंची-नीची अठबारी जगह पर नहीं जाने दिया जाता था। चारा भी उसे हराभरा और भरपूर दिया जाता था। घर वाले कहते, दो-दो परान पालने हुए उसने। गाय-भैंस ब्याती तो घर में खुशी का माहौल बन जाता। हम नई पैदा हुई बाछी या थोरी को छूना चाहते। घर वाले कहते, ‘मारेगी गाय!’ गाय बाछी को चाटती रहती। दुबली-पतली बाछी लरबर-लरबर करती, उठती-गिरती। कोई नजदीक जाने लगता तो गाय गुस्से से ‘स्यां ss क’ करती। एक-दो दिन बाद पास आने देती थी। हम धीरे से बछिया या भैंस की थोरी को छूते। कितनी मुलायम लगती थीं वे!

गोरू-भैंस ब्याने पर बछिया या थोरी भरपेट मां का दूध पीती। बाकी दूध निकाल कर गरम करके हमें दिया जाता था। उसे ‘लौद्य’ (बिगौत) कहते थे। मोटा दूध होता था वह। दस-पांच दिन हम भी बिगौत पीते। ग्यारहवे दिन बछिया या थोरी (भैंस का मादा बच्चा) का नामकरण करने के लिए ‘बध्वान’ पूजा जाता था! थोरी का बध्वान कुछ लोग पांचवे या सातवे दिन भी कर लेते थे।

बध्वान के दिन मकान के गोठ में सुबह ही थोड़ी जगह साफ-सूफ कर ली जाती। हम भाग कर तिमिल के चौड़े पत्ते तोड़ लाते। धूपबत्ती के लिए कुर्ज की पत्तियां ले आते। तब तक ददा ताजा गोबर के थोपे की गोल मोटी और बीच में धूनी जैसी गहरी भराड़ी बना लेते। जले कोयले रखने के लिए अंगीठी बनाते। तिमिल के पात को मोड़ कर, उसमें पानी भर कर भराड़ी के चारों ओर धार डालते। फिर उसी पत्ते से भराठी में दूध, दही और नौनी भर देते। तिमिल के पांच पत्तों में ब्याए हुए गोरू या भैंस के दूध की खीर रख कर द्योथल बनाते। कुर्ज की पत्तियों में नौनी मिला कर उसे जले कोयलों पर रखते। उससे धूप का खूब सुगंधित धुवां उठने लगता। माथे पर नौनी का टीका लगाते। हाथ जोड़ कर गोरू-भैंस और उसकी नई जन्मी बाछी या थोरी की कुशल के लिए, दड़ी-मोटी रहने, खूब जीने और घर-गुसैं सबके लिए सुभागी होने की प्रार्थना करते। फिर अपनी पसंद से बाछी, बाछे या थोरी का नाम रख देते। ब्याई हुई भैंस, उसकी थोरी और सभी गोरु-भैंसों की कुशल के लिए कुछ लोग कभी-कभी बकरिया बध्वान भी पूजते थे। तब बध्वान की पूजा के साथ-साथ ‘गोधनी महर’ की भी पूजा करते थे कि ‘हे, गोधनी दैन भए। हमारे गोरु-भैंसों की रक्षा करना।’ कहते थे, बहुत पहले गोधनी भैंसों का ग्वाला था, बल। भैंसों को अपना परान (प्राण) मानता था। मरने के बाद वह भैंसों की रक्षा करने वाला देवता बन गया।

गाय-भैंस ब्याती तो घर में खुशी का माहौल बन जाता। हम नई पैदा हुई बाछी या थोरी को छूना चाहते। घर वाले कहते, ‘मारेगी गाय!’ गाय बाछी को चाटती रहती। दुबली-पतली बाछी लरबर-लरबर करती, उठती-गिरती। कोई नजदीक जाने लगता तो गाय गुस्से से ‘स्यां ss क’ करती। एक-दो दिन बाद पास आने देती थी। हम धीरे से बछिया या भैंस की थोरी को छूते। कितनी मुलायम लगती थीं वे!

हम सब नई ब्याई गोरू-भैंस के दूध की खीर खाते और यह देख कर खुश होते थे कि हमारी तरह बाछी या थोरी का भी नामकरण हो गया है। चौंरी, गोधनी, बीनू, गुजारा, सेतुवा, चन्या, कजारा या भूरी, गुमानी, गुजरी, चान, बचूली सबके नाम ऐसे ही रखे गए। वे भी परिवार के सदस्यों की ही तरह माने जाते थे। उनकी खुशी हमारी खुशी और उनका दुख-दर्द हम सब का दुःख-दर्द होता था। वे भी ऐसा ही मानती थीं।

ददा दूध दुहने के लिए पहले थोरी को खोल देते। वह दूध पीती। फिर डोरी में से पानी के छींटे मार कर भैंस के थनों को धो लेते और दूध निकालते। थनों से दूध की सफेद धारें घुटनों के बीच दबा कर रखी गई डोरि में पड़तीं। खूब सफेद झाग बनता था। भैंस की थोरी को थनों से दूध पीते देख कर ददा की कुंती बिटिया तो भैंस के थन में ही मुंह लगा लेती थी। ददा देख कर हंस पड़ते। कुंती काफी समय तक थन से ही भैंस का ताजा दूध पीती रही। मैं कांसे के ब्याले (कटोरे) में दूध पीता था। कभी ददा दूध दुहने नहीं जा पाते तो गाय-भैंस दुहने नहीं देती थी। उन्हें नहीं देखतीं तो कई बार चारा तक नहीं खाती थीं। इसलिए ददा और गोरू-भैंसों के बीच एक अटूट रिश्ता बन गया था। न वे उनके बिना रह पाते, न वे उनके। इसलिए उन्हें सदा गोरू-बाछों के साथ ही रहना अच्छा लगता था- कभी घर में, तो कभी ककोड़ या फिर तिमिल पानी, बनौलिया या बलौट वन में। घर होते तो भी उन्हें गोरू-बाछों के पास खेत में छप्परों से बने खरक में ही सोना पसंद था। उसी के भीतर पटखाट बिछी रहती। सामने आग जलाने का रौंड़। छप्पर के एक खंभे पर खारा लटका रहता जिसमें जरूरत की चीजें रखते। रौंड़ के पत्थरों के पीछे चिलम और हुक्का। हुक्के पर पतला चिमटा जिससे जलता हुआ कोयला उठा कर तंबाकू पर रखते। एक ओर पानी की तौली। छप्पर की छत पर सिक (छींका) में गेठि के पेड़ की लकड़ी से बनी सुंदर डोरि लटकी रहती। उसमें दही के जमौंन से भीगी गाज्वै या सलम्य घास की लटी (चोटी) डूबी रहती। यानी, ददा की पूरी लटि-पटि।

gor-bachh-cow-and-calfधूरे में जब गोठ था तो जानवरों के साथ हम भी कई बार उसमें रहते थे। वहां से नीचे मकान में आते तो डोरि में दही भर कर लाते। ददा मेरे लिए पुड़ैंनी की बेल के चौड़े पत्तों में दही की मोटी पराली (मलाई) रख कर लाते। कहते थे, उन पत्तों में पराली बहुत ‘स्वादि’ होती है। हां, होती भी थी। बनौलिया, ककोड़ और बलौट में भी गोठी या फिर थोड़े बड़े गोठ में ही रहते थे। बड़े गोठ में ऊपर टांड़ पर सोते थे। असल में जंगल की खुली जिंदगी ददा को भी बहुत पसंद थी और गोरू-भैंसों को भी। एक बार जब उनसे मिलने मैं बाज्यू के साथ दूर बनौलिया वे वन में गया था तो मुझे भी वहां बहुत अच्छा लगा था। चीड़ के उस वन में ‘च्यूं’ यानी कुकरमुत्ते की थाली के बराबर छतरी देख कर मैं चौंक गया था। उतना बड़ा कुकुरमुत्ता मैंने पहली बार देखा था। रात में हम लोग गोठी में ही सोए। गोरू-भैंसें भी उसी में थीं।
चौमास के दिनों में वनों में नई घास उग आती। चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देती थी। गर्मियों में पके हुए चीड़ के स्यूंतों के फटने के बाद हवा में अपने एक पंख के सहारे हौले-हौले उड़ कर यहां-वहां गिरे चीड़ के बीज अब अंकुरित होकर जमीन से ऊपर सिर उठा देते। वन में बारिश के बाद की एक अलग, मोहक बनैली गंध छा जाती। मन वहीं रहने को ललचाता।

चौमास के दिनों में तो झुरझुरी बारिश के साथ हौल (कोहरा) भी इतना घना पड़ता था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था। पेड़ों से ढके कैलि-गै-क-खूर के घने धूरे में एक बार ददा ने कोहरे के बीच एक ऊंचा ‘हिंगोला’ (झूला) दिखाया था। वे कहते थे, कई बार गोरू-भैंस चराने वाला ग्वाला झूले के ऊपर जाकर, तिरछी पट्टी में कंबल ओढ़ कर बैठ जाता है। गोरू-भैंसें नीचे आसपास चरती रहती हैं। उस घने कोहरे में उनके अड़ाने के अलावा कहीं कोई आवाज नहीं होती थी। बस, गोरू-भैंसें जानती थीं कि उनका ग्वाला वहीं कहीं है। वह बीच-बीच में  ‘आहिए ss’ की टेल देता रहता। कैलि-गै-क-खूर में एक कड़ी चट्टान पर गाय के खुर का जैसा गहरा निशान था। गांव के सभी लोग उसे देवताओं की गाय के खुर का निशान मानते थे। कहते थे वह गाय आसमान से उतरी बल। वहां पर सभी लोग आसपास से हरी घास के तिनाड़ तोड़कर खुर में चढ़ाते थे।    

ददा भैंसों के साथ ही रहते लेकिन हमें तो लौटना होता था। उन्हें आटा, चावल, दाल आदि शामल-पानी देकर हम लौट आते। लकड़ी की हड़पी में घी और थैले में दही लेकर लौटते। बाज्यू के कंधे में डंडे पर एक ओर घी, दूसरी ओर थैले में दही। रास्ते भर दही का पानी निथरता। गांव वापस पहुंचने तक वह ठोस ‘गाल्याक् दै’ बन जाता जिसे हम गुड़ मिला कर या पानी में घोल कर खाते।

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13 Thoughts to “गाय-भैंस का ब्याना और बिगौत का खाना..”

  1. Nice Article..

    Humaare whaa(Berinaag Region) gaay ka bigod nahi khaate… Sirf Bhainsh ka bigod khaate hai..

  2. bahut khoob kahani sunai aapne aanand aa gaya hai.
    bahut-bahut shukriya aapaka

  3. Acharya KAMLESH KANDPAL

    bhote anand ago..ji raya jagi raya.

  4. धन्यवाद नेगी जी।

  5. धन्यवाद कांड़पालज्यू। ‘मेरी कलम’ (http://dmewari.merapahad.in) में ले एकाध किस्स पढ़िया जरूर…

  6. धन्यवाद जोशी जी।

  7. NAVIN CHANDRA PANT

    MEWARI JI KO NAMASKAR VA BAHUT2 DHANYAVAD. GHAR MAI SABKO KAHANIYAN PAD KAR SUNAYE SAB BHAV BEBHOR HO GHAYE. BHAGWAN AAPKO BANAYE RAKHE VA YU HE AAP LIKHTE RAHAIN

    1. navin chandra pant

      Bahut_bahut dhanyawad Pant ji. Apki shubhkamnaon se meri kalam ko nayi taqat mili hai.Meri in yadon ko sahej kar likhi gayi pustak 'Meri Yadon Ka Pahad' jaldi hi prakashit ho rahi hai. Use padhne mein apko anand to aayega hi,aapka man panchhi bhi gaon-ghar tak pahunch jayega….

  8. Risky Pathak

    Nostalgic… wo aamaa ka bhainsh… or uska bigod…. Gangoli ilaake me gaay ka bigod nhi khaya jata….

  9. JPPande

    Mewadiji do you have a book published ? if yes where i can get that ?

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